अपनी शक्ति पर अहंकार न करे I Blog 4 - Divyesh ki Divyvani
अपनी शक्ति पर अहंकार न करे
माना
जाता है की महाभारत के ३६ साल बाद जरा नामके शिकारी के तीर से भगवान श्री कृष्ण गंभीर
रूप से घायल हुए थे और फिर उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए थे। उनका पार्थिव शरीर एक
वड के वृक्ष के निचे पड़ा था। उनके अंतिम संस्कार के वक़्त अग्नि ने उनके हृदय के अलावा
पुरे शरीर को जला डाला। उनके हृदय को समुन्दर में विलीन कर दिया गया। उनका ये हृदय
नीलमाधव की मूर्ति में रूपांतरित हो गया और वो मूर्ति उड़ीसा में रहते आदिवासीओ को मिली।
उन आदिवासिओ ने उस मूर्ति को गुफा में प्रस्थापित किया। इस बात का राजा इन्द्रध्रुमन
को पता चल गया और उसने भगवान के लिए भव्य मंदिर बनाने का सोचा।
राजा
ने आदिवासीओ से नीलमाधव को लाने का काम उनके दरबारी विद्यापति को सौंपा। विद्यापति जानते थे की ये काम इतना आसान
नहीं है। इसलिए उन्होंने एक योजना बनाई। विद्यापति ने आदिवासीओ के मुख्या विश्वावसु की बेटी ललिता को
अपने प्रेम जाल में फसाया और नीलमाधव के दर्शन के बिना शादी न करने की हठ पकड़ ली। विश्ववसुने
कहा की वो विद्यापति की आँख पर पट्टी बांध
कर ले जायेंगे नीलमाधव के दर्शन के लिए। विद्यापति ने इस बात का स्वीकार किया और आँख
पर पट्टी बांध कर नीलमाधव के दर्शन के लिए राजी हो गए। लेकिन वह बड़ी चालाकी से गुफा
की तरफ जाते समय रास्ते में फूल के बीज फेकते गए। बारिस के बाद ये बीज फूल में परिवर्तित
हो गए और इन फूलो की वजह से उनको गुप्त गुफा का पता चल गया। राजा नीलमाधव को लेने गुफा
तक पहुंचे तो सारे आदिवासी भयभीत हो गए। आदिवासीओ ने राजा से मूर्ति वही रहने देने
के लिए कहा लेकिन राजाने अहंकार से कहा की मूर्ति मेरी है और में उसे अपने साथ लेकर
ही जाऊंगा। ऐसा कह के वह गुफा में चला गया लेकिन वह से मूर्ति गायब हो गई। इस बात से
ये साफ़ हुआ की भगवान की मूर्ति इस अभिमानी राजा के साथ नहीं जाना चाहती थी।
राजा
को अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने नीलमाधव की माफ़ी मांगी। नीलमाधव राजा को सपने में
आये और समुन्दर के तट पर चलने को कहा। यहाँ राजा को एक लकड़ी मिली उस पर भगवान के निशान
थे और इस लकड़ी से मूर्ति बनाई जा सकती थी। लेकिन मूर्ति बनाएगा कौन? ऐसी परिस्थिति में विश्वकर्माजी रूप बदलकर एक बुजुर्ग
के वेश में राजा से मिलने आये और कहा की में इस लकड़ी से भगवान की मूर्ति बना सकता हु,
लेकिन मेरी एक शर्त है। उन्होंने शर्त रखी की मुझे एक रूम चाहिए और जब तक में मूर्ति
बना न लू कोई उस रूम में नहीं आएगा। राजा ने शर्त मान ली। उसके बाद वह बुजुर्ग मूर्ति
बनाने लगे। कई दिन बीत चुके थे और राजा से अब इंतज़ार नहीं हो रहा था। वह देखना चाहता
था की मूर्ति कैसी बन रही होगी और एक दिन वह रूम में चला गया। उस रूम में वह बुजुर्ग
जो खुद विश्वकर्मा थे वो तीन अधूरी मूर्ति के साथ थे। रूम के खुलते ही विश्वकर्मा गायब
हो गए और श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की मूर्ति अधूरी ही रह गई। राजा ने इन अधूरी
मुर्तिओ को मंदिर में प्रस्थापित किया।
दोस्तों
इस कहानी से हम सिख सकते है की हमें कभी अपनी शक्तिओ पर अहंकार नहीं करना चाहिए और
धीरज से काम लेना चाहिए। कई बार ऐसा भी हो सकता है की भगवान खुद हमारी परीक्षा ले रहे
हो। तो किसी भी परिस्थिति में धीरज को बनाये रखिये और भगवान पर भरोसा रखिये।
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